” ज्योतिषां सूर्यादिग्रहणां बोधकं शास्त्रम “
इसका अर्थ यह है की सूर्य और बाकि गृह ( यानि चंद्र, मंगल, बुध, शुक्र,गुरु, शनि, राहु और केतु) और काल का बोध करने वाले शास्त्र को ज्योतिष शास्त्र कहा जाता है । इस शास्त्र में गृह, नक्षत्र, धूमकेतु आदि ज्योतिःपदार्थो का स्वरुप , संचार, परिभ्रमणकाल, ग्रहण जैसी समस्त घटनाओ का कथन किया जाता है। इसमें गणित, फलित और कुछ हद तक खगोल ज्ञान भी है। विद्वानों का मन्ना है की ज्योतिष शास्त्र की उत्पत्ति और इसका प्रचार और उपयोग कब से होने लगा यह तो अनिश्चित है। हाँ, इसका विकास और इसके शास्त्रीय नियमों का संशोधान प्राचीन काल से आज तक निरंतर होता आया है।
इस शास्त्र की परिभाषा भारतवर्ष में समय-समय पर विभिन्न रूप में बनायीं जाती रही है। अत्यंत प्राचीन काल में केवल ज्योतिःपदार्थो – गृह, नक्षत्र, तारो आदि के स्वरूप को ही ज्योतिष शास्त्र कहा जाता था। उस समय गणित इस शास्त्र में नहीं था। क्योकि उस काल में केवल दृष्टि द्वारा नक्षत्रों का ज्ञान प्राप्त करा जाता था। उस काल में जब सर्वप्रथम मानव की दृष्टि सूर्य और चन्द्रमा पर पड़ी थी, उन्होंने इनसे भयभीत होकर इन्हें देव रूप मान लिया था।
समय के साथ यह परिभाषा और विकसित हुई और उस काल में अब नक्षत्रों की आकृति, स्वरुप, गुण, तथा प्रभाव के ज्ञान को ज्योतिष कहा जाने लगा। आदिकाल में नक्षत्रों के शुभाशुभ फल के अनुसार कार्य करना, ऋतू, लगन आदि के शुभ अशुभ असर के अनुसार कार्य को करने के ज्ञान को इस शास्त्र की परिभाषा में जोड़ा गया। आदिकाल के अंत में ज्योतिष के तीन भेद – गणित, सिद्धांत और फलित पूर्ण रूप से विकसित हो गए। तथा पूर्वमध्यकाल में ज्योतिष का अर्थ – होरा, सिद्धांत और संहिता के रूप में ग्रहण किया गया।
अब इस युग के मध्य में इस परिभाषा में और भी संशोधन देखे गए और इसके पांच तत्त्व हो गए – होरा, गणित या सिद्धांत, संहिता, प्रश्न और शकुन ।
होरा
इसका दूसरा नाम जातकशास्त्र है। जन्मकालीन या जन्म के समय ग्रहों की स्तिथि के अनुसार व्यक्ति के लिए उसके जीवन का फलादेश किया जाता है। मानव जीवन के सुख, दुःख, इष्ट, अनिष्ट, उन्नति, अवनति, भाग्योदय आदि समस्त शुभ-अशुभों का वर्णन इस शास्त्र में होता है। इस शास्त्र में फलादेश के दो प्रकार है। एक में जातक के जन्म-नक्षत्र पर से और दुसरे में जातक के जन्म-लग्न और उसके बारह भावों पर से विस्तार से भिन्न दृष्टि कोण से फल बताने का तरीका है। अब इस शास्त्र में ग्रहबल, ग्राह्वार्ग, विंशोतरी आदि दशाओं के फलों को इस शास्त्र की परिभाषा में माना जाने लगा है।
गणित या सिद्धांत
गणित में करण-ग्रंथों की सारिणी तैयार करना, दिनमान, इष्ट निकलना, ग्रहों का स्पष्ट ( यानि उनकी राशि, डिग्री) सारिणी तैयार करना, दशा निकलना, लग्न निकलना, ग्रहबल आदि को रखा गया है।
संहिता
इसमें भूशोधन, मेलापक, ग्रहोपकरण, इष्टिकाद्वार, गृहप्रवेश, जलाषय-निर्माण, मांगलिक कार्यो का मुहूर्त, ग्रहों के उदय-अस्त का फल, ग्रहण-फल आदि का विस्तार से निरूपण किया जाता है।
प्रश्नशास्त्र
यह तत्काल फल बताने वाला शास्त्र है। इसमें प्रश्न करने वाले के मुख से उच्चारित अक्षरों पर से फल का प्रतिपादन किया जाता है। आदिकाल में केवल प्रशनकर्ता के मुख से निकले अक्षरों पर से फल बताया जाता था लेकिन आगे जाकर इस शास्त्र में तीन सिद्धांत और जुड़ गए-
१. प्रश्नाक्षर-सिद्धांत
२. प्रश्नलग्न-सिद्धांत
३. स्वरविज्ञान-सिद्धांत ।
शकुन
इसे निमित्शास्त्र भी कहते है। इस शास्त्र में भविष्य में होने वाली घटनाओं का आंकलन किया जाता है।